Saturday, January 30, 2010

गुमनामी का ग़म

कुछ दर्द लफ्ज़ बन कर दिल से निकल जाते हैं,
कुछ शूल बनकर इस दिल में ही रह जाते हैं,
इन्ही कहे-अनकहे लफ्जों से लिखी हुई
एक दर्द-ऐ-दिल की दास्तान हूँ मैं

कुछ आंखों से अश्क बन कर बरस पड़ते हैं,
कुछ आंखों में अंगार बन कर रह जाते हैं,
इन्ही ख़ामोश, गहरी आंखों में बसे,
मूक अश्कों की बेबस जुबां हूँ मैं।

कभी गिरी तो ज़मीन पर से न उठाया किसी ने
मेरी धूल पोंछकर न सीने से लगाया कभी,
ख़ुद गिरना-संभालना बहुत हो चुका,
अब इस तन्हाई-बेबसी से परेशान हूँ मैं।

आज आया क्या यहाँ पर हे मसीहा कोई???
झुककर मुझे उसने उठाया है अभी,
पोंछ कर मेरी धूल सीने से लगाया है मुझको,
ये क्या हो रहा है? कैसे भला ...
सोचकर बहुत हैरान हूँ मैं


फिर रख कर मुझे सामने बड़े प्रेम से
वो मुझे गौर से पढ़ने लगा,
हर लफ्ज़ पे उसकी निगाह जो गयी,
पढ़ कर उसकी आँखें डबडबा सी गयीं,
जी उठी दास्ताँ, मिल गई रोशनी,
यूँ लगा, जैसे अश्कों को जुबां मिल गयी।

पर वो भी इंसान था, कोई मसीहा नहीं,
पढ़ लिया मगर, समझा न एक लफ्ज़ भी सही,
रख दिया मुझे फिर वहीँ ज़मीन पर,
और होटों पे उसके हसीं छा गयी
ऐसे ही नासमझों की झूठी मुस्कान हूँ मैं।


मैं अनजान हूँ, मैं परेशान हूँ
जान कर भी न कोई पहचाने मुझे
इस बात से हैरान हूँ मैं।
मैं हूँ बेबस निगाहों से बहता लहू,

जुबां है मगर फिर भी बेजुबान हूँ मैं।

कहे-अनकहे लफ्जों से लिखी हुई
एक दर्द-ए-दिल की दास्तान हूँ मैं।
ओ जानेवाले, मुड़ कर तो देख
सिर्फ़ दास्ताँ नही, एक इंसान हूँ मैं।।


-ऋतु गुप्ता

अभी तो है बाकी......

कहाँ ले चले तुम, मुझको ओ लोगों?
अभी तो मुझमे चंद साँसे हैं बाकी...
ये गैरों की महफिल है...यहाँ न कोई मेरा
ठहरो, अभी मेरे अपनों का आना है बाकी...


बहुत कुछ बताना है मुझे अपनी माँ को
पिताजी को कई किस्से सुनाना है बाकी
छोटू और पिंकी को तोहफे हैं देने
और अभी तो रूठी दिलरुबा को मनाना है बाकी........

अब वक्त नही रुकेगा तुम्हारे लिए...
उसे क्या पता क्या-क्या करना है बाकी?
नशे के वक्त क्यूँ परवाह की अपनों की?
अभी तो उनके साथ सारा जीवन बिताना था बाकी.....

कहाँ चला गया है मेरे लाल तू?
अभी तो वो वादा निभाना था बाकी...
तूने जो किया था कि घर आऊंगा माँ मैं..
अभी तो तेरा छुट्टियों में घर आना था बाकी....

कहता था, पिताजी मुझे करना है आपके अरमानों को पूरा
आपकी जिम्मेदारियों का बोझ अपने कन्धों पर उठाना है बाकी
आज मेरे ही कन्धों पर सवार होकर जा रहा है...
क्या इस बाप को यही दिन दिखाना था बाकी?

भइया तुमने कहा था सिखाओगे फर्रे बनाना..
और अभी तो भाभी से मिलवाना था बाकी...
पिंकी को भी तोहफा अभी नही चाहिए
अभी तो राखी बंधवाना है बाकी....

करनी थी बहुत सी शिकायतें तुमसे
तुम्हे अभी और सताना था बाकी...
ले चलो मुझे भी, यूँ छोडो तनहा
कि तुम बिन अब यहाँ रहा क्या है बाकी?

नशे ने तो चिता पर लेटा ही दिया था
अब रह गया बस जलाना है बाकी
ज़हर पी लेते हैं ख़ुद अपने ही हाथों से
और अपनों पर छोड़ जाते हैं अस्थियों का बहाना ये बाकी.....

ऋतू गुप्ता

Monday, January 25, 2010

One more time, together!

One more time together, friends, let’s stand up to celebrate the 60th Republic Day. Let’s tell our country, one more time together, that we love it. Let’s be proud, one more time together, that we are Indians.
Let’s salute our tricolour, one more time together. Let’s sing our national anthem, one more time together. Let’s say, Chak de India, one more time together.
Why am I stressing so much on ‘one more time together’?
Because I’m afraid, now we be Indians, together, in true spirit, occasionally, rather only on these two days—Republic Day and Independence Day.
So——just one more time!
For the rest of the days, we belong to separate places, speak different languages, love those who speak our tongue and kill the ones who dare to set foot on our soil.
No, I’m not talking about different nations. I’m referring to one nation, our nation, where we stay like estranged neighbours.
Giving up our lives for the sake of our country seems to have become passé. Now, we end up being killed, fighting for states.
Each of us wants a separate state. And let’s not blame anybody else for it. Let’s not say ‘you want it and I don’t.’ We all want it—knowingly or unknowingly. If people who have been living with us want to separate from us, we are responsible. It’s because we have treated them unfairly, we’ve been unjust towards them. It’s because we have not made them feel at home, we have discriminated against them.
At a time when we should be working towards wiping out all discrimination based on caste, creed, gender and religion, we are moving backwards and dividing ourselves further on grounds of language, beliefs, practices, etc.
When we should be doing our best to prevent unfortunate incidents like the Godhr riots and Babri Masjid demolition, we are involving ourselves in ‘Telangana’ ‘Vidharbha’ and Marathi and non-Marathi.
Eventually what are we planning to leave for our generations to come? A separate Republic Day for each state? Or worse still, a small bunch of them hoisting a flag to mark the independence of ‘So and so Colony’?